जीवन के इस लुका छुपी के खेल में
लगता है वो भी कहीं छुप गया है
पहले के दिन भी क्या दिन थे
जब कागज की नाव बनाते थे
उसे पानी में उतार
दूर तक उसके पीछे जाते थे
गर्मी की छुट्टी में नानी के घर जाते थे
और पेड़ के नीचे बैठ
कोयल की कूं कूं की
घंटों नकल उतारते थे
अब वो बचपना गुम गया है
मोबाइल में आंख लगाए
हर बच्चा उसमे खो गया है
अब ना कागज की कश्ती है
ना ही वो मस्ती है
ना जाने ये क्या हो गया है
पहले छत पर बैठ
रात में तारे गिनते थे
जोड़ जोड़ कर उसको
ख्याली तस्वीर बनाते थे
तेज धूप में छत पर
ऊंची पतंग उड़ाते थे
अब वो बचपना कहीं खो गया है
हर बच्चा मोबाइल पकड़
घर में कैद हो गया है
ना जाने कैसे लौटेगा वो बचपन
जो कहीं खो गया है
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