जब बचपन में पापा १ रूपए देते थे
तो उस १ रूपए को पा
जो हमारे चेहरे पर झलकती थी
वो खुशी होती थी
जब स्कूल से थके हारे घर आते थे
और बैग दूर फेंक
मां के हाथों से गरमा गरम खाना खाते थे
तो जो सुकून मिलता था
उस सुकून में खुशी होती थी
जब दोस्तों के साथ बाहर खेलने जाते थे
तो उन दोस्तों से मिल कर जो महसूस होती थी
वो खुशी होती थी
अब ना १ रूपए देख वो खुशी होती है
क्युकी १ रूपए पाना जैसे भीख लगती है
ना ही मां के हाथों से खाना खाने की फुरसत होती है
क्युकी खुद में ही इतने व्यस्थ हो गए है
और वो दोस्त .... वो दोस्त भी अब मतलबी हो गए हैं
ज़िन्दगी जैसे मोहताज हो गई हैं
जहां पहले बहाने लगा खुशी आती थी
अब हर छोटी बात में खुशी ढूंढते हैं
और खुद को गमों में समेट कर रखते हैं
वो खुशी कहीं लापता हो गई है
क्युकी हर किसी की ज़िन्दगी बहुत व्यस्थ हो गई है
चलो चलें उस खुशी को ढूंढने
जो कहीं गुम गई है
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